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चान्दमारी / नरेन्द्र जैन

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=नरेन्द्र जैन की पांच कविताएंचांदमारी}}{{KKCatKavita‎}}<poem>चांदमारी चान्दमारी एक खास ख़ास जगह होती हैजहां जहाँ खड़े किये गये नकली पुतलों को
गोली मारी जाती है
 
कोई न कोई होता ही है
निशाने की जद में
 
इधर कला और संस्कृति और साहित्य के
प्रभुतासम्पन्न केन्द्र विकसित किये जा रहे
चांदमारी के लिए
शिकार की खोज जारी रहती है
खास ख़ास किस्म का वातावरण
हवा और धूप भी
खास कोण से बहती और उतरती
एक खास किस्म के वैचारिक सद्भाव सद्‍भाव पर दिया जाता बल
प्रकारांतर से एक खास लक्ष्य की ओर रहते अग्रसर
कविताएंूूूण्जंकइींअण्बवउयहां यहाँ जब सम्पन्न होती चांदमारीगोलियों की आवाजें सुनायी आवाज़ें सुनाई नहीं देतींनिहायत ही खास ख़ास ढंग से मारा जाता कोई
किसी को आभास तक नहीं होता
और आंखें आँखें निकाल ले जाते वे
वे इसे नयी दृष्टि का विकसित होना कहते हैं
 
वे यकीन नहीं करते
गोली मार देने जैसे तरीकों में
वे भाषा में संेध सेंध लगाते हैं
और निर्वासित करते किसी को
भाषा के जीवंत कालखंड से
जिस्म पर नहीं आती कोई खरोंच
लेकिन बहुत से विचार हताहत होते हैं
यहां यहाँ से गुजर गुज़र कर भी
नयी शक्ल में आ रहे
कुछ विचार।
घास का रंगघास कमर तक उ$ंची हो आयी हैहरी और ताजाजब हवा चलती है घास जमीन पर बिछ बिछ जाती हैवह दोबारा उठ खड़ी होती हैहाथ में दरांती लिए वह एक कोने में बैठा हैघास का एक गठ्ठर तैयार कर चुका वहनीम, अमरूद, जाटौन, केवड़ा, तुलसी आदि के पौधेउसके आसपास हैं वह सब उसे घास काटते देख रहेकभी कभार तोते आते हैं अमरूद पर वे कुछ फलकुतरते हैं और उड़ जाते हैं उनका रंग और घास कारंग एक है। बरामदे में कहीं चिड़िया चहकती है कभीहवा के बहते ही पीतल की घंटियां बजने लगती हैंूूूण्जंकइींअण्बवउहवा है कि मिला जुला संगीत बहता है, दरांती कीआवाज, दरवाजे के पल्ले की आवाज, वाहन की यांत्रिक ध्वनिऔर कभी लोहे पर पड़ती हथौड़े की आवाज, गोया दरांती,हथौड़ा, पल्ला सब वाद्य हैं और धुन बजा रहे हैंघास काटते काटते अब वह गुनगुना रहा कोई गीत हैया कोई दोहा, स्वर धीमा है, घास जरूर उसे सुन रही।गली से अभी अभी वह गुजरा है जिसके कंधों परबहुत से ढोलक हैं, उसकी अंगुलियां सतत ढोलक बजारहीं। कद्दू, लौकी, गिलकी और तुरही की बेलों काहरा जाल अब ढोलक सुन रहा, हर कहीं हवा औरधूप का साम्राज्य फैला है। पत्थर की एक मेज के आसपासकोई नहीं है। मेज के पायों से चीटियों का मौन जुलूसनिकल रहा है, सृष्टि का सबसे मौन जुलूस, एक अंतहीनमानव शृंखला आगे बढ़ी जा रही है जैसेकभी कभार जब सन्नाटा छाया रहता है, मेज के पासएक शख्स बैठा पाया जाता है। जब धूप की शहतीरआसमान की सीध से नीचे गिरती है, धूप काप्रतिबिम्ब उसके प्याले में दिखलायी देता है।सूखी नदीयहां से करीब हीबहती हैसूखी हुई नदीयहां बैठे बैठे सुनता हूंसूखी नदी की लहरों का शोरदेखता हूं एक नौकाजो सूखी नदी की लहरों में बढ़ी जा रहीएक सूखी नदीजीवंत नदी की स्मृति बनी हुई हैूूूण्जंकइींअण्बवउएकसूखी नदी के किनारेजल से भरा खाली घड़ा लिएवह स्त्राीघर की ओर लौट रही है।बाजरे की रोटियांबहुत सारे व्यंजनों के बादमेज के अंतिम भव्य सिरे पर रखी थींबाजरे की रोटियांमैंने नजरें बचाते बचातेकुछ रोटियां उठायींएक कुल्हड़ में भरा छाछ का रायताऔर समारोह से बाहर एक पुलिया पर आ बैठाअब मेरे पासभूख थीऔरएक दुर्लभ कलेवामैंने पुलिया पर बैठे बैठे वर वधू को आशीष दियाऔर उस अंधकार की तरफ बढ़ाजहां मेरा घर था।थोड़ी बहुत मृत्युमृत्यु आयी और कल मेरी कहानी के एक पात्रा कोअपने संग ले गयीअक्सर उसके घर के सामने से गुजरते हुएमैं उधर देख लिया करता थाअर्से से वह दिखा ही नहींएक दिन कहा किसी ने कि वह बीमार है गम्भीर रूप सेउससे मिलने के लिए थोड़ा बहुत साहस जरूरी थाजो मैंने अपने आप में न पायाूूूण्जंकइींअण्बवउअंततः एक दिन मैं खामोश बैठा रहा उसके सामनेउसके ओठों पर हल्की सी मुस्कुराहट थी या शायदरहा हो कोई दर्दवह बिस्तर पर था और हो चुका था तब्दील एक कंकाल मेंदेर तक वह देता रहा मुझे डाॅक्टरों, हकीमों और वैद्यों का हवालाउसे कोई मलाल न थामैं उसे सुनता ही रहामुझे याद आये अपनी कहानी के वे प्रसंगजहां वह शिद्दत से मौजूद थाउसके दरवाजे के वे पल्ले जिनकी दरारों सेदिखायी देती थी बाहर की दुनियाअक्षरों को ढूंढ ढूंढ कर एक भाषा में ढालने का उसका कामगिरफ्त खामोशी की तकलीफदेह थीजब मैं उससे बाहर आयामेरा पात्रा धीरे धीरे पास आती शाम को देख रहा थाशवयात्रा में जुटे आठ दस लोगतत्परता से उसे फंूक आयेमुझे अब लग रहा कि उसके संगमेरा भी कुछ जाता रहा हैजैसे थोड़ी बहुत मृत्यु मुझे भी आयी हैअब उधर से गुजरता नहीं देखता मैंकवेलू वाला छप्परअब मैं उस कहानी को भी नहीं पढ़ता जहां रहा आया वहअब मैंउसके जिक्र से भी भरसक बचता हूंउसका गुजरना गोया मेरा भी गुजरना है यहां</poem>
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