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{{KKRachna
|रचनाकार=राजीव रंजन प्रसाद
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}<poem>मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते

तुम्हारी ही जमीनों पर, जो उगते हैं कुकुर-मुत्ते
वो जंगल कंकरीटों के, न छाया है न फल देंगे
तरक्की किसकी है देखो, गया है कौन चंदा पर
तेरा क्या है, तुझे तो तेरे हल होंगे तो हल देंगे..

बगीचे हैं मुगल राजों के, फूलों की कयारी है,
ये वो गुल हैं जो तुझको देख मुस्काया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...

गुजर जाते हैं जो रस्ते, वहाँ काँटे बिछाता कौन
कि नंगे पैर, उस पर लौट कर जाना नहीं सोचें
धरातल अपने पैरों का अगर अंगार को बेचा
तो एडी पर उचक कर चाँद को पाना नहीं सोचें

अगर सपनें लुभाते हैं, पसीनें उनको पाते हैं,
पतंगे मोम की लौ में, यूं जल जाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...

किसी मोटर नें जब कुचली थी अस्मत तेरी मुन्नी की
लटक कर जान दे दी थी, लगा कर गाँठ चुन्नी की
वकीलों नें उसे जब बेहया साबित किया था तुम
महज लाचार थे, बेबस थे, अपने आप ही में गुम

अगर वो आत्मा भटकी हुई, सोने नहीं देती
तो नाखूनों को पैना कर, ये मर जाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...

तेरी ही जंग है, अपना अकेला तू सिपाही है
तेरा अपना पसीना ही लहू है और सियाही है
बहुत सोचो, तुम्हारे सोचने में आग होती है
अगर जागे तो सारी आँख में रतजाग होती है

तुम्हें जो नोचते हैं, उनके पंजों में नहीं ताकत,
पलट कर तुम झपट देखो, वो लड पाया नहीं करते...
मेरे दिल देख कर सूरज को, पछताया नहीं करते...

16.03.2007</poem>
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