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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
}}
<poem>
आज यहि उपलब्ध कियौ ,
और ऐसो मनोरथ सिद्ध कियौ.
धन मैंने एतौ पाय लियौ,
पुनि और की आस आबद्ध कियौ
मैं रिपुअन कौ मारन हारो,
बहु अन्य रिपुन कौ हन्ता मैं.
मैं सिद्धि श्री भोगन हारो,
बलवान सुखी और कन्ता मैं
धनवान कुटुंब कौ स्वामी महा,
मोरे सम दूसर कौन कहाँ?
तप दान यज्ञ कौ कर्ता में.
अज्ञान सों मोहित होत यहाँ
बहु भांति भ्रमित जिन चित्त भयौ,
बहु भोगन विषयन लिप्त भयौ.
मद मोह अति आसक्त भयौ.
बिनु संशय नर्क गयौ ही गयौ
धन मान के मद सों मुक्त भयौ ,
अति नीकौ आपु कौ आपु कह्यौ .
बिनु शास्त्र विधि के यज्ञ करयौ,
पाखण्ड करयौ , तिन पाप करयौ
बल कामहिं क्रोध घमंड अहम् ,
रागादि बसो जिन प्राणिन में
मद- मोह ग्रसित, पर निंदक कौ,
नाहीं ब्रह्म दिखत प्रति प्रानिन में
जिन द्वेशन क्रोध विकार धरै,
उन क्रूर नराधम प्रानिन कौ,
गति देत अधम पुनि-पुनि उनकौ,
जग माहीं आसुरी योनिन कौ
जिन आसुरी योनि मिलै पार्थ!
तिन मोहे कबहूँ नहीं पावति है,
अति हेय अधोगति पाय के ये ,
अति घोर नरक माहीं जावति हैं
सुनि लोभ, क्रोध, और काम यही,
त्रै द्वार नरक के पार्थ ! सुनौ.
इनसों ही अधोगति होवत है,
सों तत्व समाय , यथार्थ गुनौ
इन तीनों नरक के द्वारन सों,
हे अर्जुन! जो नर मुक्त भयौ,
शुभ करमन सों गति पाय परम,
वही मोसों ही संयुक्त भयौ
जिन त्याग दई विधि शास्त्रन की,
व्यवहार सदा मन भायौ करयौ.
सुख सिद्धिं ताकी होत नहीं,
भाव सिन्धु सों वे जन नाहीं तरयों
सुन करम-अकर्म व्यवस्था में,
एकमेव ही शास्त्र प्रमान बनयौ,
यहि जानि के शास्त्र कथित विधि सों,
करौ करम, यथा कल्यान, कहयौ
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति
}}
<poem>
आज यहि उपलब्ध कियौ ,
और ऐसो मनोरथ सिद्ध कियौ.
धन मैंने एतौ पाय लियौ,
पुनि और की आस आबद्ध कियौ
मैं रिपुअन कौ मारन हारो,
बहु अन्य रिपुन कौ हन्ता मैं.
मैं सिद्धि श्री भोगन हारो,
बलवान सुखी और कन्ता मैं
धनवान कुटुंब कौ स्वामी महा,
मोरे सम दूसर कौन कहाँ?
तप दान यज्ञ कौ कर्ता में.
अज्ञान सों मोहित होत यहाँ
बहु भांति भ्रमित जिन चित्त भयौ,
बहु भोगन विषयन लिप्त भयौ.
मद मोह अति आसक्त भयौ.
बिनु संशय नर्क गयौ ही गयौ
धन मान के मद सों मुक्त भयौ ,
अति नीकौ आपु कौ आपु कह्यौ .
बिनु शास्त्र विधि के यज्ञ करयौ,
पाखण्ड करयौ , तिन पाप करयौ
बल कामहिं क्रोध घमंड अहम् ,
रागादि बसो जिन प्राणिन में
मद- मोह ग्रसित, पर निंदक कौ,
नाहीं ब्रह्म दिखत प्रति प्रानिन में
जिन द्वेशन क्रोध विकार धरै,
उन क्रूर नराधम प्रानिन कौ,
गति देत अधम पुनि-पुनि उनकौ,
जग माहीं आसुरी योनिन कौ
जिन आसुरी योनि मिलै पार्थ!
तिन मोहे कबहूँ नहीं पावति है,
अति हेय अधोगति पाय के ये ,
अति घोर नरक माहीं जावति हैं
सुनि लोभ, क्रोध, और काम यही,
त्रै द्वार नरक के पार्थ ! सुनौ.
इनसों ही अधोगति होवत है,
सों तत्व समाय , यथार्थ गुनौ
इन तीनों नरक के द्वारन सों,
हे अर्जुन! जो नर मुक्त भयौ,
शुभ करमन सों गति पाय परम,
वही मोसों ही संयुक्त भयौ
जिन त्याग दई विधि शास्त्रन की,
व्यवहार सदा मन भायौ करयौ.
सुख सिद्धिं ताकी होत नहीं,
भाव सिन्धु सों वे जन नाहीं तरयों
सुन करम-अकर्म व्यवस्था में,
एकमेव ही शास्त्र प्रमान बनयौ,
यहि जानि के शास्त्र कथित विधि सों,
करौ करम, यथा कल्यान, कहयौ
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