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Kavita Kosh से
विविध रंगों के मुकुर सँवार,
जड़ा जिसने यह कारागार;
बना क्या बन्दी वही अपार,अखिल प्रतिबिम्बों का अधार?::वक्ष पर जिसके जल उडुगण,::बुझा देते असंख्य जीवन;::कनक औ’ नीलम-यानों पर,::दौड़ते जिस पर निशि-वासर,पिघल गिरि से विशाल बादल,न कर सकते जिसको चंचल;तड़ित की ज्वाला घन-गर्जन,जगा पाते न एक कम्पन;::उसी नभ सा क्या वह अविकार--::और परिवर्तन का आधार?::पुलक से उठ जिसमें सुकुमार,::लीन होते असंख्य संसार!
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