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|रचनाकार=नरेन्द्र शर्मा
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जब-तब नींद उचट जाती है
 
पर क्‍या नींद उचट जाने से
 रात कीसी किसी की कट जाती है? 
देख-देख दु:स्‍वप्‍न भयंकर,
 
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
 
पर भीतर के दु:स्‍वप्‍नों से
 
अधिक भयावह है तम बाहर!
 
आती नहीं उषा, बस केवल
 
आने की आहट आती है!
 
देख अँधेरा नयन दूखते,
 
दुश्चिंता में प्राण सूखते!
 
सन्‍नाटा गहरा हो जाता,
 
जब-जब श्‍वन श्रृगाल भूँकते!
 
भीत भवना, भोर सुनहली
 
नयनों के न निकट लाती है!
 
मन होता है फिर सो जाऊँ,
 
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
 
जब तक रात रहे धरती पर,
 
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ!
 
उस करवट अकुलाहट थी, पर
 
नींद न इस करवट आती है!
 
करवट नहीं बदलता है तम,
 
मन उतावलेपन में अक्षम!
 
जगते अपलक नयन बावले,
 
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!
 
साँस आस में अटकी, मन को
 
आस रात भर भटकाती है!
 
जागृति नहीं अनिद्रा मेंरी,
 
नहीं गई भव-निशा अँधेरी!
 
अंधकार केंद्रित धरती पर,
 
देती रही ज्‍योति च‍कफेरी!
 
अंतर्यानों के आगे से
 
शिला न तम की हट पाती है!
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