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|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद
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{{KKCatKavita}}<poem>हीरे-सा हृदय हमारा<br />कुचला शिरीष कोमल ने<br />हिमशीतल प्रणय अनल बन<br />अब लगा विरह से जलने।<br /><br /> अलियों से आँख बचा कर<br />जब कुंज संकुचित होते<br />धुँधली संध्या प्रत्याशा<br />हम एक-एक को रोते।<br /><br /> जल उठा स्नेह, दीपक-सा,<br />नवनीत हृदय था मेरा<br />अब शेष धूमरेखा से <br /> चित्रित कर रहा अँधेरा।<br /><br /> नीरव मुरली, कलरव चुप<br />अलिकुल थे बन्द नलिन में<br />कालिन्दी वही प्रणय की<br />इस तममय हृदय पुलिन में।<br /><br /> कुसुमाकर रजनी के जो<br />पिछले पहरों में खिलता<br />उस मृदुल शिरीष सुमन-सा<br />मैं प्रात धूल में मिलता।<br /><br /> व्याकुल उस मधु सौरभ से<br />मलयानिल धीरे-धीरे<br />निश्वास छोड़ जाता हैं<br />अब विरह तरंगिनि तीरे।<br /><br /> चुम्बन अंकित प्राची का<br />पीला कपोल दिखलाता<br />मै कोरी आँख निरखता<br />पथ, प्रात समय सो जाता।<br /><br /> श्यामल अंचल धरणी का<br />भर मुक्ता आँसू कन से<br />छूँछा बादल बन आया<br />मैं प्रेम प्रभात गगन से।<br /><br /> विष प्याली जो पी ली थी<br />वह मदिरा बनी नयन में<br />सौन्दर्य पलक प्याले का<br />अब प्रेम बना जीवन में।<br /><br /> कामना सिन्धु लहराता<br />छवि पूरनिमा थी छाई<br />रतनाकर बनी चमकती<br />मेरे शशि की परछाई।<br /><br /> छायानट छवि-परदे में<br />सम्मोहन वेणु बजाता<br />सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में<br />कौतुक अपना कर जाता।<br /><br /> मादकता से आये तुम<br />संज्ञा से चले गये थे<br />हम व्याकुल पड़े बिलखते<br />थे, उतरे हुए नशे से।<br /><br /> अम्बर असीम अन्तर में<br />चंचल चपला से आकर<br />अब इन्द्रधनुष-सी आभा<br />तुम छोड़ गये हो जाकर।<br /><br /> मकरन्द मेघ माला-सी<br />वह स्मृति मदमाती आती<br />इस हृदय विपिन की कलिका<br />जिसके रस से मुसक्याती।<br /><br /> हैं हृदय शिशिरकण पूरित<br />मधु वर्षा से शशि! तेरी<br />मन मन्दिर पर बरसाता<br />कोई मुक्ता की ढेरी।<br /><br /> शीतल समीर आता हैं<br />कर पावन परस तुम्हारा<br />मैं सिहर उठा करता हूँ<br />बरसा कर आँसू धारा<br /><br /> मधु मालतियाँ सोती हैं<br />कोमल उपधान सहारे<br />मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर<br />गिनता अम्बर के तारे।<br /><br /> निष्ठुर! यह क्या छिप जाना?<br />मेरा भी कोई होगा<br />प्रत्याशा विरह-निशा की<br />हम होगे औ' दुख होगा।<br /><br /> जब शान्त मिलन सन्ध्या को<br />हम हेम जाल पहनाते<br />काली चादर के स्तर का<br />खुलना न देखने पाते।<br /><br /> अब छुटता नहीं छुड़ाये<br />रंग गया हृदय हैं ऐसा<br />आँसू से धुला निखरता<br />यह रंग अनोखा कैसा!<br /><br /> <br /> कामना कला की विकसी <br /> कमनीय मूर्ति बन तेरी<br />खिंचती हैं हृदय पटल पर<br />अभिलाषा बनकर मेरी।<br /><br /> मणि दीप लिये निज कर में<br />पथ दिखलाने को आये<br />वह पावक पुंज हुआ अब <br /> किरनों की लट बिखराये।<br /><br /> बढ़ गयी और भी ऊँठी<br />रूठी करुणा की वीणा<br />दीनता दर्प बन बैठी<br />साहस से कहती पीड़ा।<br /><br /> यह तीव्र हृदय की मदिरा<br />जी भर कर-छक कर मेरी<br />अब लाल आँख दिखलाकर<br />मुझको ही तुमने फेरी।<br /><br /> नाविक! इस सूने तट पर<br />किन लहरों में खे लाया<br />इस बीहड़ बेला में क्या<br />अब तक था कोई आया।<br /><br /> उम पार कहाँ फिर आऊँ<br />तम के मलीन अंचल में <br /> जीवन का लोभ नहीं, वह<br />वेदना छद्ममय छल में।<br /><br /> प्रत्यावर्तन के पथ में<br />पद-चिह्न न शेष रहा है।<br />डूबा है हृदय मरूस्थल<br />आँसू नद उमड़ रहा है।<br /><br /> अवकाश शून्य फैला है<br />है शक्ति न और सहारा<br />अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या<br />हो भी कुछ कूल किनारा।<br /><br /> तिरती थी तिमिर उदधि में<br />नाविक! यह मेरी तरणी<br />मुखचन्द्र किरण से खिंचकर<br />आती समीप हो धरणी।<br /><br /> सूखे सिकता सागर में<br />यह नैया मेरे मन की<br />आँसू का धार बहाकर<br />खे चला प्रेम बेगुन की।<br /><br /poem>