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विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!
::सहयोग सिखा शासित-जन को
::शासन का दुर्वह हरा भार,
::होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से
::रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
::बहु भेद-विग्रहों में खोई
::ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
::तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
::औ अन्धकार को अन्धकार।
उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँग-रँग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृहा, ह्लाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
 
'''रचनाकाल: मई’१९३५'''
</poem>
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