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|संग्रह=दिन दिवंगत हुए / कुँअर बेचैन
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रोज़ आँसू बहे रोज़ आहत हुए
रात घायल हुई, दिन दिवंगत हुए
हम जिन्हें हर घड़ी याद करते रहे
रिक्त मन में नई प्यास भरते रहे
रोज़ जिनके हृदय में उतरते रहे
वे सभी दिन चिता की लपट पर रखे
रोज़ जलते हुए आख़िरी ख़त हुए
दिन दिवंगत हुए!
रोज़ आँसू बहे रोज़ आहत हुए<br>रात घायल हुई, दिन दिवंगत हुए<br>हम जिन्हें हर घड़ी याद करते शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे<br>रिक्त मन नैन में नई प्यास भरते ज्योति का दीप बाले रहे<br>रोज़ और जिनके हृदय दिलों में उतरते उजाले रहे<br>वे सभी अब वही दिन चिता किसी रात की लपट भूमि पर रखे<br>रोज़ जलते एक गिरती हुई शाम की छत हुए आख़िरी ख़त हुए<br>! दिन दिवंगत हुए !<br><br>
शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे<br>अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी नैन में ज्योति का दीप बाले रहे<br>वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी और जिनके दिलों में उजाले रहे<br>है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी अब वही दिन किसी रात की भूमि पर<br>कि जो प्राण के मोह में बंद थे एक गिरती हुई शाम की छत हुए !<br>आज चोरी गई वो ही दौलत हुए। दिन दिवंगत हुए !<br><br>
जो अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी<br>वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी<br>है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी<br>दिन कि जो प्राण के मोह में बंद थे<br>आज चोरी गई वो ही दौलत हुए ।<br>दिन दिवंगत हुए !<br><br> चाँदनी भी हमें धूप बनकर मिली<br>रह गई जिंन्दगी की कली अधखिली<br>हम जहाँ हैं वहाँ रोज़ धरती हिली<br>हर तरफ़ शोर था और इस शोर में<br>ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए।<br>दिन दिवंगत हुए! <br><br/poem>
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