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:अन्तिम आशा जीवन की।
सब कुछ गया; महा मरघट में
:मैं हूँ खड़ा अकेला,
या तो चारों ओर तिमिर है,
:या मुर्दों का मेला।
लेकिन, अन्तिम मनुज प्रलय से
:अब भी नहीं डरा है,
एक अमर विश्वास ज्योति-सा
:उस में अभी भरा है।
आज तिमिर के महागर्त्त में
:वह विश्वास जलेगा,
खुद प्रशस्त होगा पथ, निर्भय
:मनु का पुत्र चलेगा।
निरावरण हो जो त्रिभुवन में
:जीवन फैलाता है,
वही देवता आज मरण में
:छिपा हुआ आता है।
देव, तुम्हारे रुद्र रूप से
:निखिल विश्व डरता है,
विश्वासी नर एक शेष है
:जो स्वागत करता है।
 
आओ खोले जटा-जाल
:जिह्वा लेलिह्य पसारे,
अनल-विशिख-तूणीर सँभाले
:धनुष ध्वंस का धारे।
 
’जय हो’,जिनके कर-स्पर्श से
:आदि पुरुष थे जागे,
सोयेगा अन्तिम मानव भी,
:आज उन्हीं के आगे।
 
'''रचनाकाल: १९४२'''
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