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सिर झुका कहने लगे मानी महीप अशोक:--
"हे नियन्ता विश्व के कोई अर्चिन्त्य, अमेय!
ईश या जगदीश कोई शक्ति हे अज्ञेय!
हों नहीं क्षन्तव्य जो मेरे विगर्हित पाप,
दो वचन अक्षय रहे यह ग्लानि, यह परिताप।
 
प्राण में बल दो, रखूँ निज को सैदव सँभाल,
देव, गर्वस्फीत हो ऊँचा उठे मत भाल।
 
शत्रु हो कोई नहीं, हो आत्मवत् संसार,
पुत्र - सा पशु - पक्षियों को भी सकूँ कर प्यार।
 
मिट नहीं जाए किसी का चरण - चिह्न पुनीत,
राह में भी मैं चलूँ पग-पग सजग, संभीत।
::हो नहीं मुझको किसी पर रोष,
::धर्म्म का गूँजे जगत में घोष।
बुद्ध की जय! धम्म की जय! संघ का जय - गान,
आ बसें तुझमें तथागत मारजित् भगवान।"
::देवता को सौंप कर सर्वस्व,
::भूप मन ही मन गये हो निःस्व।
और तब उन्मादिनी सोल्लास,
रक्त पर बहती विजय आई वरण को पास।
संग लेकर ब्याह का उपहार,
रक्त-कर्दम के कमल का हार।
 
पर, डिगे तिल-भर न वीर महीप;
थी जला करुणा चुकी तब तक विजय का दीप।
 
'''रचनाकाल: १९४१'''
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