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दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर ,<br>
गरजा सहसा राधेय, न जानेंजाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर .<br>''सामने प्रकट हो पलय प्रलय ! फाड फाड़ तुझको मैं राह बनाऊंगा ,<br>
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा .''<br>
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''क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .<br>
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .<br>
ओ शल्य ! हयों को तेज क़रोकरो, ले चलो उडाकर शीघ्र वहां ,<br>
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां .''<br>
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''हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे ,<br>
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे ,<br>
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर् आत्तनाद होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण ,<br>
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन .''<br>
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''संहार देह धर खडा खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो ,<br>
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो .<br>
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,<br>
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समझ में शल्य की कुछ भी न आया ,<br>
हयों को जाेर जोर से उसने भगाया .<br>
निकट भगवान् के रथ आन पहुंचा ,<br>
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?<br>
लगा अपनी भुजा का जोर देखो .''<br>
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कहा, ''हां सत्य ही, सारे भुवन में ,<br>
विलक्षण बात मेरे ही लिए है ,<br>
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर ,<br>
लगा ऊपर उठाने जोर करके ,<br>
कभी सिधासीधा, कभी झकझोर करके .<br>
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मही डोली, सलिल-आगार डोला ,<br>
चला वह जा रहा नीचे धंसा था .<br>
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शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर ,<br>
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले _<br>
''खडा है देखता क्या मौन, भोले ?''<br>
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