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{{KKRachna
|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
}}
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<poem>
आ गए, कुहरों भरे दिन आ गए।
मेघ कन्धों पर धरे दिन आ गए।
धूप का टुकडा़ कहीं भी
दूर तक दिखता नहीं,
रूठकर जैसे प्रवासी
ख़त कभी लिखता नहीं,
याद लेकर सिरफिरे दिन
आ गए।
दूर तक लहरा रही आवाज़
सारस की कहीं है,
सुबह जैसे गुनगुनाकर श्वेत
स्वेटर बुन रही है,
आँख मलते छोकरे दिन
आ गए।
इस शिखर से उस शिखर तक
मेघ-धारा फूटती है,
घाटियों के बीच जैसे
रेलगाड़ी छूटती है,
भाप पीते मसखरे दिन
आ गए।
एक धुंधला पारदर्शी जाल
धीवर तानता है,
बर्फ़ को आकाश का रंगरेज़
चादर मानता है,
यों बदलकर पैंतरे दिन
आ गए।
बाँध लेती हर नदी कुछ
सिलसिला-सा हो गया है,
मन पहाड़ी कैक्टससा
घाटियों में खो गया है,
नग्न होते कैबरे दिन
आ गए।
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=उमाशंकर तिवारी
}}
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<poem>
आ गए, कुहरों भरे दिन आ गए।
मेघ कन्धों पर धरे दिन आ गए।
धूप का टुकडा़ कहीं भी
दूर तक दिखता नहीं,
रूठकर जैसे प्रवासी
ख़त कभी लिखता नहीं,
याद लेकर सिरफिरे दिन
आ गए।
दूर तक लहरा रही आवाज़
सारस की कहीं है,
सुबह जैसे गुनगुनाकर श्वेत
स्वेटर बुन रही है,
आँख मलते छोकरे दिन
आ गए।
इस शिखर से उस शिखर तक
मेघ-धारा फूटती है,
घाटियों के बीच जैसे
रेलगाड़ी छूटती है,
भाप पीते मसखरे दिन
आ गए।
एक धुंधला पारदर्शी जाल
धीवर तानता है,
बर्फ़ को आकाश का रंगरेज़
चादर मानता है,
यों बदलकर पैंतरे दिन
आ गए।
बाँध लेती हर नदी कुछ
सिलसिला-सा हो गया है,
मन पहाड़ी कैक्टससा
घाटियों में खो गया है,
नग्न होते कैबरे दिन
आ गए।
</poem>