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<poem>
मैं
माँ की कोख में पल रहा
प्रेम का नन्हा बिरवा था
उसके पहले मैं ज्योति-पुंज का एक अंश था

एक दिन
अंतरिक्ष में चक्कर लगाते मैंने धरती पर
प्रेम का अद्भुत प्रकाश देखा
और उसे पास से देखने के लोभ में
माँ की कोख में गिर पडा़
कोख में बहुत अन्धेरा था
पर मैं खुश था
क्योंकि मैं आदमी की तरह
ले रहा था रूपाकार...

मेरी माँ
रात-दिन गुनगुनाया करती
उसके रोम-रोम से
प्रेम के सोते फूटते रहते
पिता इन दिनों बाहर थे
माँ मेरे सहारे प्रसन्न थी
पर कभी-कभी उदास हो जाती

क्योंकि अभी तक नहीं थी
उनके प्रेम को
स्वीकृति समाज की...
पर मुझे इससे क्या फर्क पड़ता
मैं तो प्रेम का बिरवा था
माँ की कोख में पल रहा...

और उस दिन
माँ बहुत खुश थी
पूरा घर महक रहा था
माँ के तन-मन की तरह
पिता आने वाले थे...

वे आए
माँ उनके सीने से लग गई
मैंने आँखें बंद कर ली
अचानक माँ की हिचकियों से चौंका
देखा पिता अजनबी से दूर खडे़ थे
हुआ क्या है...

मैंने कान लगाकर सुनने की
कोशिश की
और जो सुनाई पडा़
उसने मुझे काठ कर दिया

पिता
मुझे अपना मानने से इन्कार कर रहे थे
वे मेरी हत्या की बात भी
कह रहे थे
मैं सदमें में था

यह वही आदमी है क्या
जिसकी आँखों में मैंने
उस दिन इतना प्यार देखा था
माँ तो बेचारी भोली स्त्री थी
मैं अंतरिक्ष का वासी
कैसे धोखा खा गया...?

जी चाहा
ऐसे आदमी की हत्या कर दूँ
जो माँ को भी माँ की तरह
कमज़ोर... मज़बूर
ओर सीमाओं में जकड़े था

पिता चले गए
और फिर माँ पर
ढाए जाने लगे जुल्म...
पूरा संसार ही जैसे हम दोनों का शत्रु बन गया था

अब मैं
पाप का बिरवा था
माँ की कोख में पल रहा...

मैं
कई-कई दिन
माँ के साथ
भूखा-प्यासा रहा
गालियाँ और मार सहता रहा
मैं... माँ को सान्त्वना
देना वाहता था

"मैं दूंगा तुम्हारा साथ...
तुम खुद को अकेली न समझो माँ...
पर माँ अपने दुख में डूबी
मेरी आवाज़ नहीं सुन पा रही थी
तभी तो हार रही थी
टूट रही थी...

मैं
इस
माँ के साथ
एक बडे़ कमरे में
बडी़-सी मेज़ पर लेटा हुँ

इस कमरे में
ढेर-सारे औजार हैं
और नाक-मुँह ढँकी नर्से...
मेरा जी घबरा रहा है
माँ के हाथ-पैरों को
ऊँचा करके बाँधा जा रहा है
जैसे जिबह के लिए बकरे को...

एक नर्स इन्जेक्शन लेकर
बढ़ रही है माँ की तरफ़
मैं डर के मारे आँखे बंद कर लेता हूँ
अचानक मेरे बदन में
जैसे सैंकड़ों सुइयाँ चुभने लगी हैं

मैं देखता हूँ
माँ बेहोश हो गई है
और नुकीले औजार मेरी ओर
बढ़ रहे हैं
मैं पूरे जोर से चीखता हूँ
माँ! मुझे बचाओ...

पर माँ निष्पंद पडी़ है...
मैं अकेला
और इतने खतरनाक शत्रु
संड़सी मुझे पकड़ने की कोशिश में है
मैं इधर-उधर दुबकने की कोशिश करता हूँ
पर कब तक...

संड़सी ने मेरे गले को पकड़ लिया है
हथौडा़ मेरे सिर को कुचल रहा है
माँ की कोख में फैली मेरी जड़ों को
बेदर्दी से काटा जा रहा है...

सोचता हूँ
जब माँ को होश आएगा
कितना रोएगी वह मेरे लिए
जब तक जीएगी... रोएगी
रोयेगी कि क्यों किया था उसने प्रेम...

मैं ठोस से तरल हो रहा हूँ
माँ... माँ मुझे क्षमा करना
मैं तुम्हारा साथ न दे सका
बहुत कमज़ोर निकला
तुम्हारी कोख में पल रहा
यह बिरवा

माँ... माँ।
</poem>