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किसी हेतु संसार भार-सा, देता हो यदि तुमको ग्लानि,
:तो अब मेरे साथ उसे तुम, एक और अवसर दो दानि!"
लक्ष्मण फिर गम्भीर हो गये, बोले--"धन्यवाद धन्ये!
:ललना सुलभ सहानुभूति है, निश्चय तुममें नृपकन्ये!
साधारण रमणी कर सकती, है ऐसे प्रस्ताव कहीं?
:पर मैं तुमसे सच कहता हूँ कोई मुझे अभाव नहीं॥"
"तो फिर क्या निष्काम तपस्या, करते हो तुम इस वय में?
:पर क्या पाप न होगा तुमको, आश्रम के धर्म्मक्षय में?
मान लो कि वह न हो, किन्तु इस, तप का फल तो होगा ही,
:फिर वह स्वयं प्राप्त भी तुमसे, क्या न जायगा भोगा ही?
वृक्ष लगाने की ही इच्छा, कितने ही जन रखते हैं,
:पर उनमें जो फल लगते हैं, क्या वे उन्हें न चखते हैं?"
लक्ष्मण अब हँस पड़े और यों, कहने लगे--"दुहाई है!
:सेंतमेंत की तापस पदवी, मैंने तुमसे पाई है॥
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