भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>आराइश-ए-ख़याल भी हो दिलकुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या कि रोज़ एक सा ग़म एक सी उम्मीद
इस रंज-ए-बेख़ुमार की अब इंतहा भी हो
आराइश-ए-ख़याल भी हो दिलकुशा भी हो <br>ये क्या के एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो <br><br>
ये क्या के रोज़ एक सा ग़म एक सी उम्मीद <br>इस रंजटूटे कभी तो ख़्वाब-ए-बेख़ुमार की अब इंतहा शब-ओ-रोज़ का तिलिस्म इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो <br><br>
दीवानगी-ए-शौक़ को ये क्या के एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र <br>जी चाहता धुन है अब कोई तेरे सिवा इन दिनों घर भी हो और बे-दर-ओ-दीवार सा भी हो <br><br>
टूटे कभी तो ख़्वाब-ए-शब-ओ-रोज़ का तिलिस्म <br>इतने हुजूम में जुज़ दिल कोई चेहरा नया मकान नहीं दहर में जहाँ रहज़न का ख़ौफ़ भी न रहे दर खुला भी हो <br><br>
दीवानगीहर ज़र्रा एक महमील-ए-शौक़ को ये धुन इब्रत है इन दिनों <br>दश्त का घर लेकिन किसे दिखाऊँ कोई देखता भी हो और बे-दर-ओ-दीवार सा भी हो <br><br>
जुज़ दिल हर शय पुकारती है पस-ए-पर्दा-ए-सुकूत लेकिन किसे सुनाऊँ कोई मकान नहीं दहर में जहाँ <br>रहज़न का ख़ौफ़ भी न रहे दर खुला हमनवा भी हो <br><br>
हर ज़र्रा एक महमीलफ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-इब्रत है दश्त का <br>ग़ुंचा की सदा लेकिन किसे दिखाऊँ कोई देखता ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो <br><br>
हर शय पुकारती बैठा है पस-ए-पर्दा-ए-सुकूत <br>एक शख़्स मेरे पास देर से लेकिन किसे सुनाऊँ कोई हमनवा भला-सा हो तो हमें देखता भी हो <br><br>
फ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-ग़ुंचा की सदा <br>ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो <br><br> बैठा है एक शख़्स मेरे पास देर से <br>कोई भला-सा हो तो हमें देखता भी हो <br><br> बज़्म-ए-सुख़न भी हो सुख़न-ए-गर्म के लिये <br>ताऊस बोलता हो तो जंगल हरा भी हो <br><br/poem>
Delete, Mover, Uploader
894
edits