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ठहरो / नीलेश रघुवंशी

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|संग्रह=घर-निकासी / नीलेश रघुवंशी
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ठहरो!
 
हिल रहा है अभी नन्हा हाथ
 
मोड़ के ख़त्म होने तक
 
पीछा करती है
 
उसकी नन्हीं आँखें मुस्कुराहट में डूबी।
 
ठहरो!
 
मुस्कुराहाट में छिपी कसक को ले जाओ अपने साथ
 
बनी नहीं अभी ऎसी सड़क
 
ख़त्म न हो जो मोड़ पर।
 
ठहरो!
 
 
रोना है मुझे जी भर
 
रातों के सपनों को याद कर।
 
ठहरो!
 
कन्धे पर सिर रख करनी हैं जी भर बातें।
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