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Kavita Kosh से
कतारबद्ध चींटियाँ
ढो रही हैं अपने घर का साजो -सामान
एक नए घर में
आशा और उम्मीद के साथ
विस्थापित होती हुई चींटियाँ
चल देती हैं नए ठिए कि तलाश में
किसी भी शिकवा शिकायत के बगैरबग़ैर
पुराने घर की दीवारों से गले लगकर
रोती हैं चींटियाँ
बहाती नहीं हैं पर आंसूआँसू
दिखाती नहीं हैं आक्रोश
प्रकट नहीं करती हैं गुस्सा
जानती हैं फिर भी प्रतिरोध की ताक़त
मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगंधसुगँधसूंघती सूँघती हैं चींटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने
हताश होना
चलते रहने के लिए
बढ़ने के लिए आगे ही आगे
पढ़ती हुई हर खतरे ख़तरे को
जूझती हैं चींटियाँ
मुठ्ठियों की ताक़त को एक साथ!!
'''रचनाकाल : 5 सितम्बर, 2003'''
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