भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
बादरु गरजइ बिजुरी चमकइ<br>बैरिनि ब्यारि चलइ पुरबइया,<br>काहू सौतिन नइँ भरमाये<br>ननदी फेरि तुम्हारे भइया।।<br><br>
दादुर मोर पपीहा बोलइँ<br>भेदु हमारे जिय को खोलइँ<br>बरसा नाहिं, हमारे आँसुन<br>सइ उफनाने ताल-तलइया।<br>काहू सौतिन...।।<br><br>
सबके छानी-छप्पर द्वारे<br>छाय रहे उनके घरवारे,<br>बिन साजन को छाजन छावइ<br>कौन हमारी धरइ मड़इया ।<br>काहू सौतिन...।।<br><br>
सावन सूखि मई सब काया<br>देखु भक्त कलियुग की माया,<br>घर की खीर, खुरखुरी लागइ<br>बाहर की भावइ गुड़-लइया।<br>काहू सौतिन...।।<br><br>
देखि-देखि के नैन हमारे<br>भँवरा आवइँ साँझ–सकारे,<br>लछिमन रेखा खिंची अवधि की<br>भागि जाइँ सब छुइ-छुइ ढइया ।<br>काहू सौतिन...।। <br><br>
माना तुम नर हउ हम नारी<br>बजइ न एक हाथ सइ तारी,<br>चारि दिना के बाद यहाँ सइ<br>उड़ि जायेगी सोन चिरइया।<br>काहू सौतिन...।।<br><br/poem>