भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'सैंकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
दिन ढलें लाख, न यह रात पुन:आयेगी
रत्न-सा छूट छुट न कभी हाथ लगेगा यौवनरूप की लौट न बरात बारात पुन: आयेगी
 
"ज्ञान की बाँध बड़ी पोट गले गुरुओं के
कूप में डाल उन्हें, और उठा ले प्याला
आज की रात तुझे अंक लगाकर अपने
वे मधु मधुर खेल दिखाऊँ कि बने मतवाला
 
"दीप जो आज जले, प्रात सभी को बुझना
पूछता कौन वहाँ, --'स्नेह लुटाया क्यों था!'
अधजला-सा, कि जला-सा, कि जलन पीता-सा
तू ज़रा पूछ उसी से उसीसे कि जलाया क्यों था!
 
'शाह जमशेद कहाँ तख़्त सुलेमानी आज!
2,913
edits