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{{KKRachna
|रचनाकार=चंद्रभानु भारद्वाज
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<poem>
ढह गए विश्वास टूटी आस्थाएं;
दर्द बन कर रह गईं हैं प्रार्थनाएं।

प्रश्नचिन्हों से घिरे हैं न्यायमंदिर,
हाथ में कुरआन गीता हम उठाएं।

दीप की जलती हुई लौ तो बुझातीं,
आग को पर और दहकातीं हवाएं।

कौन के आगे करें शिकवा शिकायत,
जब बिना अपराध ही मिलतीं सजाएं।

थक गए हैं पांव राहें खो गईं हैं,
ज़िन्दगी का धर्म अब कैसे निभाएं।

लिख दिए हैं जो ह्रदय की सत शिला पर ,
प्यार के अभिलेख वे कैसे मिटाएँ।

रेत का आधार 'भारद्वाज' लेकर,
भव्य सपनों के महल कैसे बनाएं।
</poem>
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