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मैं असीर अपने गिजाल का, मैं फ़कीर दश्ते विसाल का
जो हिरन को बांध के ले गया वो सुबुक्तगीन सुबुक्तगीं कोई और है
मैं अजब मुसाफिर -बेईमान-बेईमां, कि जहां जहां भी गया वहां
मुझे लगा कि मेरा खाकदान, ये जमीं नहीं कोई और है
मेरे जी को जिसकी रही ललक, वो कमर जबीं कोई और है
ये जो चार दिन के नदीम हैं , इन्हे क्या ’फ़राज़’ कोई कहेवो मोहब्बतें, वो शिकायतें, मुझे जिससे थीथीं, वो कोई और है.
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