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शानदार / विजय वाते

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<poem>
साफ़ सुथरा पारदर्शी आरपार
और इसके बाद भी हैं पायेदार

जुगनुओं को थी जरूरत रात की
सूर्य ने कब था छपाया इश्तहार

या खुदा वो कान दे कि सुन सकूँ
उसके भीतर बज रहा है जो सितार

डूबना वो भी तुम्हारा डूबना
बारिशों मे छेड़ते हो क्यों मल्हार

पद चिड़िया घोसले कविता नदी
नाम सब तेरे ही हैं परवरदिगार

बात कहने का हुनर बस लाजवाब
बात भी होती है उसकी जानदार

चंद लफ़्ज़ों में ये उसका है बयाँ
शानदारों से बड़ा वो शानदार
</poem>