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|रचनाकार = वीरेन डंगवाल|संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल
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<poem>
गोड़ रहीं माई ओ मउसी ऊ देखौ
आपन-आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत।
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई ई आग।
गोड़ रहीं माई ओ मउसी ऊ देखौ<br>वो जोशभरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों कीआपन-आपन बालू के खेत<br>वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सलकहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ<br>वह कहवाघर!सिगरे बस रेत ही रेत.<br>जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थीअनवरसीटी हिरानी हे भइया<br>हेराना सटेसन परयाग<br>जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा<br>किन बैरन लगाई ई आग.<br><br>हम कंगलों को
वो जोशभरे नारे दोसे महानजीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर।छंगू पनवाड़ी शानदारअद्भुत उधार।दोस्त निश्छल। विद्वेषहीनजिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकलसकल प्रेमज्ञान सकल।अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह गुत्थमगुत्था बहसों हरा-पीलाचिपचिपा प्यारवे पेड़ नीम के ठण्डेचित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों परगोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की<br>क़तारकाफ़ी ऊपर तकइन्हीं तनों से टिका देते थे हमबिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल।सड़कें वे अध्यापक कितने उदात्त नदियों जैसी शान्त और वत्सल<br>मन्थरवह कहवाघर!<br>अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्धजिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया धीमे-धीमे से डग भरता हुआ अक्टूबरगोया फ़िराक़।कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाबजिन पर तिरछी आ जाया करती थी<br>बहारहम कंगलों को<br><br>वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वालीवे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचारसब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूँ।
दोसे महान<br>अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकीलजीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर.<br>या नर्सिंग होम, नये युग की बेहूदा पर मुश्किल दलीलछंगू पनवाड़ी शानदार<br>अद्भुत उधार.<br>दोस्त निश्छल. विद्वेषहीन<br>जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल<br>सकल प्रेम<br>ज्ञान सकल.<br>अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला<br>चिपचिपा प्यार<br>वे पेड़ नीम नर्म भोले मृगछौनों के ठण्डे<br>आखेटोत्सुक लूमड़ सियारचित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर<br>गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार<br>काफ़ी ऊपर तक<br>इन्हीं तनों से टिका देते थे हम<br>बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल.<br>सड़कें वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर<br>अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध<br>खग कूजन भी हो रहा लीन!धीमे-धीमे से डग भरता अब बोल यार बस बहुत हुआ अक्टूबर<br>गोया फ़िराक़.<br>कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाब<br>जिन पर तिरछी आ जाया करती थी बहार<br>वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वाली<br>वे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचार<br>सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूं.<br><br>कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!
अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील<br>या नर्सिंग होम, नये युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील<br>नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार<br>खग कूजन भी हो रहा लीन!<br>अब बोल यार बस बहुत हुआ<br>कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!<br><br> कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया<br>हम समझ लिये<br>अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं.नहीं।</poem>
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