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Kavita Kosh से
रोज़ की तरह
रोज़मर्रा की वही बातें
और उनके रूप प्रतिरूप
मैं लिखने लगा था
अचानक गिर पड़ी दो लाल बूंदें कलम से
स्तब्ध था मैं
जो कभी हंसती थी, रोती थी, मचलती थी,
पर आज खामोश है,
धीर, गंभीर ,..
मेरी अथाह जिज्ञासा
और मेरे मूक प्रश्नों से उबी..
उदासी में डूबी
कलम ने रुधे गले से बताया
ये दो लाल बूंदें
सामान्य नहीं
स्वर्णिम रक्त की है
उस माटी से उठा कर लायी हूँ
जहाँ वीरो ने अपने प्राण त्याग दिए
राष्ट्र की बलि वेदी पर..
उठा लायी हूँ मैं देखकर उनका निस्वार्थ त्याग
इन बूंदों को
ताकि.. अमर हो सकूँ उनकी तरह
अगर हो सके तो लिख दो
संवेदनहीन जनमानस के सोये अन्तःस्थल पर
उन वीरों के अंतिम शब्द....
एक झटके के साथगिर पड़ा हाथ कागज के पृष्ठ पर
टूट गयी कलम अपने आखिरी शब्द कह कर..
सफ़ेद पृष्ठ पर लिखा था..
वन्देमातरम.... जय हिंद..!!
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