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|रचनाकार=वीरेन डंगवाल
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<poem>

बूढ़ी अरावली पर्वतमाला
धूसर-सफेद वृषभों का एक सहमा हुआ झुण्‍ड
छितराये कंटीले वन में भीतर उसके
कहीं छिपे हैं
वृष स्‍वरूप ही महाकाल

देखते ही बनती हैं
उनकी नाना छटाएं
खास कर कुतुब इंस्‍टीट्यूशनल एरिया में
और उसके भी परे
जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के
मनमोहक परिसर में
जो कि देश का एक बड़ा भारी
हसीन सब्‍जबाग है

लता-गुल्‍म-मोर-शोर
क्रांति सजग-प्रेमी जन-हत्‍यारे
स्‍वप्‍न-बिद्ध स्‍वप्‍नाहत स्‍वप्‍नसिद्ध वृंदावन

ऊपर से एक पर एक
गुजरते जाते हैं वायुयान
गर्जना करते
ह्वेल मछली सरीखे चिकने सफेद
उनके पेट
इतने करीब
और झपकती हुई उनकी बत्‍त्तियां

और बिल्‍कुल साफ-साफ दिखाई देतीं
उनके रूपहले इस्‍पाती डैनों पर
चित्रलिपि में जैसी लिखीं इबारतें

सुदूर देशों में बसे मनुष्‍यों की याद दिलातीं
देतीं धूप को एक
बिल्‍कुल नया रंग

कम से कम अस्‍पताल के पहले दिन तो
इस बढ़ी उम्र में भी
लौट आता है कुछ देर को
बचपन का वह कौतुक भरा उल्‍लास
इंदिरा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय वायुपत्‍तन
और पालम हवाई अड्डे के सौजन्‍य से
जो यहां से काफी करीब

हमसे छीने हैं हमारे कितने ही मित्र-सखा
दिल्‍ली के इन हवाई अड्डों
विश्‍वविद्यालयों संस्‍थानों और
अस्‍पतालों ने
मगर फिर कभी
वह कथा फिर कभी
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