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|रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव
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''' अँधेरे ने किया अभयदान '''

रोशनी हमें बाँट देती है
टुकड़ों-टुकड़ों में,
बेतरतीब बिखेर-छींट देती है
इतनी क्रूरता से पटककर
छितरा देती है
कि बहुत मुश्किल हो जाता है
अपने हिज्जे-हिज्जे समेटना
और खुद में वापस आना

अँधेरा हमें लौटा देता है
हमें और हमारे टुकड़ों को जोड़ देता है,
हमारे बिखराव को
अपनी मुट्ठी में समेत
हमें साकार और ठोस रहने देता है,
बड़े लाड़-दुलार से
छिपा लेता है
अपनी गरम-गरम गोद में--
दुनियावी नज़रों से बखूबी बचाकर

अँधेरे को भुतहे ख्यालों से
अलग कर दो
उससे अच्छा मित्र कहाँ मिलेगा

उसकी पालथी में बैठ
हम रोएँ या बौखलाएं,
सिर और छाती पीट-पीट
तड़पें या मर जाएं,
मजाल क्या कि
कोई हमारी खिल्ली उड़ा सके.