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नया पृष्ठ: <poem>छिप नहीं सकता वह सुख तृप्ति बन तिर-तिर चेहरे पर घिर-घिर आता हैं …
<poem>छिप नहीं सकता वह सुख
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।
</poem>
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।
</poem>