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{{KKRachna
|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
}}
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<poem>
झरते हुए पत्ते में
देखता रहा बिम्ब
अपना
सूनी आँखों में
घिरता है जैसे कभी-कभी
सपना
अँधेरा है, अकेला हूँ
घर-बच्चों से दूर
बहुत कुछ ख़ुद से भी
सुनता हूँ
अपनी ही
आवाज़
रगों के टूटने की
लौ की मानिन्द भभकते हैं शब्द
अव्वल-आख़िर मिट्टी को है तपना
<poem>
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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
|संग्रह=मैं नहीं था लिखते समय / गोबिन्द प्रसाद
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झरते हुए पत्ते में
देखता रहा बिम्ब
अपना
सूनी आँखों में
घिरता है जैसे कभी-कभी
सपना
अँधेरा है, अकेला हूँ
घर-बच्चों से दूर
बहुत कुछ ख़ुद से भी
सुनता हूँ
अपनी ही
आवाज़
रगों के टूटने की
लौ की मानिन्द भभकते हैं शब्द
अव्वल-आख़िर मिट्टी को है तपना
<poem>