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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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<poem>

अपने लिए मैं एक अँधेरा
चुन लेता हूँ
फिर किसी नाटक के पात्र की तरह
घर भर की बातें सुन लेता हूँ

नया वेश बदलकर
अब रंगमंच पर नहीं
प्रकाश वृत में घिरा रहकर
किसी संवाद में रेंगने के बजाय
अपने भीतर
एक नेपथ्य चुन लेता हूँ

मैं जानता हूँ
दर्शकों के बीच
मौन से काम अब नहीं चलेगा

फ़िलहाल बेहतर यही है
मैं अपने लिए हवा के विरोध में
सर उठाकर
कोई कर्म चुन लेता हूँ

जीवन की शायद यही परिभाषा हो
वक़्त का शायद यही तकाज़ा हो
तो जीने का यही साँचा
मैं अपने लिए चुन लेता हूँ
<poem>
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