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Kavita Kosh से
''' शहर के बच्चे जो रोते नहीं हैं '''
और क्या हो सकता है
इससे बड़ा अपशकुन
आगंतुक संस्कृति के लिए
कि शहर के बच्चे रोने से
बाज आ चुके हैं,
ज़रुरत नहीं है
इस खुले सच की पड़ताल करने
शोध-अनुसंधान करने की
कि किसी अभिशाप के चलते
उनकी आंखों का पानी
रंग-बिरंगे नगों में तब्दील हो गया है