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|रचनाकार=लीलाधर मंडलोई
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<poem>

यह वही पहाड़ है
जिसे बचपन से चढ़ते आए
कितना बीमार है यह
गायब है पेड़ों की मजबूत कतारें
सैकड़ों सालों में बनी थी
मिट्टी की अजेय सतह जो
नहीं दीखती अब

जड़ें जो घेर लेती थीं
चट्टानों को और
इतनी ताकतवर कि
उतर जाती थीं उनके सीनों में
खो गई हैं कहीं
कहां है वह साथ-सुथरा जल
जो उतरता था इसी मिट्टी से
और भ्‍ज्ञर देता था खेत-‍खलिहान

इधर जो उतरता है पहाड़ से
समेटता मिट्टी और कितना गंदला
और उतरता जब नदियों में
तो बस गाद का अंबार फेंकता

जल स्‍तर बढ़ता ऊपर को
साल-दर-साल
और नदियों के इलाकों में
बाढ़ का ताण्‍डव

पेड़ों बगैर जो हरियाली
बस नयन-सुख है यात्रि‍यों का
इसमें बस छुपा है
बेलों और मौसमी पौधों का घनत्‍व

कहां है भाई वो अभेद्य कवच
वो जड़ें
वो सख्‍त मिट्टी
वो पेड़ों की कतार
वो प्राकृतिक जंगल

जो कुछ हरा है
भ्रम को फैलाता है
सूख जाएगा
बारिश के बाद

सूख जाएगी घास
कि जो स्‍थाई नहीं
सूख जाएंगी नदियां एक दिन
सूख जाएगा पहाड़

बचा रहेगा यदि कुछ
तो सरकार का गलत आंकड़ा
सरकार का बिका मंसूबा

जब तक नहीं दीखता
पहाड़ से उतरता वो जत्‍था
जिसने पहचान लिया है सच
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