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<br>चौ०-कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
<br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥बनाएँ॥१॥
<br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
<br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥
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<br>चौ०-तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
<br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥रिझाएँ॥१॥
<br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
<br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥
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<br>चौ०-जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
<br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥परित्राता॥१॥
<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
<br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥
<br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
<br>नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
<br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥अकाजा॥१॥
<br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
<br>उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥
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<br>चौ०-कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
<br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥महीसा॥१॥
<br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
<br>जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥
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<br>चौ०-तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
<br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥बानी॥१॥
<br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
<br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥
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<br>चौ०-सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
<br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥कठिनाई॥१॥
<br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
<br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥
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<br>चौ०-जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
<br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥मोही॥१॥
<br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
<br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥
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<br>चौ०-एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
<br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥देवा॥१॥
<br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
<br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥
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<br>चौ०-सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
<br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥अधिकाई॥१॥
<br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
<br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥
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<br>चौ०-तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
<br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥पाई॥१॥
<br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
<br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥
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