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<br>चौ०-चितवहि चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
<br>जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥श्रेनी॥१॥
<br>लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
<br>देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥पहिचाने॥२॥
<br>थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
<br>अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥चकोरी॥३॥
<br>लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
<br>जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥सकुचानी॥४॥
<br>दो०-लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
<br>निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥२३२॥
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<br>चौ०-सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
<br>मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥के॥१॥
<br>भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
<br>बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥रतनारे॥२॥
<br>चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
<br>मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥लजाहीं॥३॥
<br>उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
<br>सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥लोना॥४॥
<br>दो०-केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
<br>देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥२३३॥
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<br>चौ०-धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
<br>बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥लेहू॥१॥
<br>सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
<br>नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥छोभा॥२॥
<br>परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहि सभीता॥
<br>पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥आली॥३॥
<br>गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
<br>धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरि अपनपउ पितुबस जाने॥जाने॥४॥
<br>दो०-देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
<br>निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥२३४॥
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<br>चौ०-जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
<br>प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥खानी॥१॥
<br>परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित भीतीं लिख लीन्ही॥
<br>गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥जोरी॥२॥
<br>जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
<br>जय गज बदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥गाता॥३॥
<br>नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
<br>भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥बिहारिनि४॥॥
<br>दो०-पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
<br>महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥२३५॥
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<br>चौ०-सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
<br>देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥सुखारे॥१॥
<br>मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
<br>कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥बैदेहीं॥२॥
<br>बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
<br>सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥भरेऊ॥३॥
<br>सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
<br>नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥राचा॥४॥
<br>छं०-मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
<br>करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
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<br>चौ०-हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
<br>राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥नाहीं॥१॥
<br>सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
<br>सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥सुखारे॥२॥
<br>करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
<br>बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। संध्या करन चले दोउ भाई॥भाई॥३॥
<br>प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
<br>बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥नाहीं॥४॥
<br>दो०-जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
<br>सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥२३७॥
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<br>चौ०-घटइ बढ़इ बिरहनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
<br>कोक सिकप्रद सोकप्रद पंकज द्रोही। अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥तोही॥१॥
<br>बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोष बड़ अनुचित कीन्हे॥
<br>सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुरु पहिं चले निसा बड़ि जानी॥जानी॥२॥
<br>करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
<br>बिगत निसा रघुनायक जागे। बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥लागे॥३॥
<br>उदउ अरुन अवलोकहु ताता। पंकज कोक लोक सुखदाता॥
<br>बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥बानी॥४॥
<br>दो०-अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
<br>जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥२३८॥
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<br>चौ०-नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
<br>कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥अवसाना॥१॥
<br>ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
<br>उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥प्रकासा॥२॥
<br>रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
<br>तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥परिपाटी॥३॥
<br>बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
<br>नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥नाए॥४॥
<br>सतानंदु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
<br>जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥भाई॥५॥
<br>दो०-सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
<br>चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥२३९॥
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