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12:07, 14 अगस्त 2010
<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : जो मिरा इक महबूब हैसड़कवासी राम!<br> '''रचनाकार:''' [[अरुणा रायहरीश भादानी]]</td>
</tr>
</table>
<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
जो मिरा इक महबूब है । मत पूछिए क्या ख़ूब है आँखें उसकी काली हँसी, दो डग चले बस डूब है पकड़ उसकी सख़्त है पर छूना उसका दूब है हैं पाँव उसके चंचल बहुत, रूकें तो पाहन बाख़ूब हैंसड़कवासी राम!
जो मिरा इक महबूब न तेरा था कभीन तेरा है । मत पूछिए कहींरास्तों दर रास्तों परपाँव के छापे लगाते ओ अहेरीखोलकरमन के किवाड़े सुनसुन कि सपने कीकिसी सम्भावना तक में नहींतेरा अयोध्या धाम।सड़कवासी राम! सोच के सिर मौरये दसियों दसाननऔर लोहे की ये लंकाएँकहाँ है कैद तेरी कुम्भजाखोजता थकबोलता ही जा भले तूकौन देखेगासुनेगा कौन तुझकोये चितेरेआलमारी में रखे दिनऔर चिमनी से निकलती शाम।सड़कवासी राम! पोर घिस घिसक्या ख़ूब गिने चैदह बरस तूगिन सके तोकल्प साँसों के गिने जागिन किकितने काटकर फेंके गए हैंऐषणाओं के पहरूएये जटायु ही जटायुऔर कोई भी नहींसंकल्प का सौमित्रअपनी धड़कनों के साथदेख वामन सी बड़ी यह जिन्दगीकर ली गई है....इस शहर के जंगलों के नाम।सड़कवासी राम!
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