भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<br>मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥२॥
<br>किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा॥
<br>सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी गढ़ि काढ़ी। मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी॥३॥
<br>चौंकें भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई॥४॥
<br>दो०-सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि॥
<br>–*–*–
<br>सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता॥
<br>प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥बिसेषी॥१॥
<br>तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
<br>भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥निहारे॥२॥
<br>स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
<br>पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥राऊ॥॥३॥
<br>जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
<br>कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने॥मुसकाने॥४॥
<br>दो०-सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
<br>रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥२९१॥
<br>–*–*–
<br>पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिंघ तिहु पुर उजिआरे॥
<br>जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥लागे॥१॥
<br>तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
<br>सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥एका॥२॥
<br>संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
<br>तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी॥भानी॥॥३॥
<br>सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
<br>जेहि कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥पावा॥४॥
<br>दो०-तहाँ राम रघुबंस मनि सुनिअ महा महिपाल।
<br>भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल॥२९२॥
<br>–*–*–
<br>सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
<br>देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥कीन्हा॥१॥
<br>राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
<br>कंपहि भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥ताकें॥२॥
<br>देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ॥
<br>दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥पागी॥॥३॥
<br>सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
<br>कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुख माना॥माना॥४॥
<br>दो०-तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ।
<br>कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥२९३॥
<br>–*–*–
<br>सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
<br>जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥नाहीं॥१॥
<br>तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
<br>तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥देबी॥२॥
<br>सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
<br>तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥जाकें॥॥३॥
<br>बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
<br>तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥निसाना॥४॥
<br>दो०-चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाइ।
<br>भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥२९४॥
<br>–*–*–
<br>राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
<br>सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥बखानीं॥१॥<br>प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बनी॥बानी॥<br>मुदित असीस देहिं गुरु नारीं। अति आनंद मगन महतारीं॥महतारीं॥२॥
<br>लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुड़ावहिं छाती॥
<br>राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥बरनी॥॥३॥
<br>मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
<br>दिए दान आनंद समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥देता॥४॥
<br>सो०-जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
<br>चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥२९५॥
<br>कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
<br>समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होने बधाए॥होन बधाए॥१॥
<br>भुवन चारि दस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
<br>सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥लागे॥२॥
<br>जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। राम पुरी मंगलमय पावनि॥
<br>तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई॥बनाई॥॥३॥
<br>ध्वज पताक पट चामर चारु। छावा परम बिचित्र बजारू॥
<br>कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥माला॥४॥
<br>दो०-मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
<br>बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥२९६॥
<br>–*–*–
<br>जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
<br>बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरुप रति मानु बिमोचनि॥बिमोचनि॥१॥<br>गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनिकल सुनि कल रव कलकंठि लजानीं॥<br>भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥बिताना॥२॥
<br>मंगल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
<br>कतहुँ बिरिद बंदी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥करहीं॥॥३॥
<br>गावहिं सुंदरि मंगल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
<br>बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥ओरा॥४॥
<br>दो०-सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
<br>जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥२९७॥
<br>–*–*–
<br>भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई॥
<br>चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥भ्राता॥१॥
<br>भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
<br>रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥बिराजे॥२॥
<br>सुभग सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
<br>नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उड़ाने॥उड़ाने॥॥३॥
<br>तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
<br>सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥भारी॥४॥
<br>दो०- छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
<br>जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥२९८॥
<br>–*–*–
<br>बाँधे बिरद बीर रन गाढ़े। निकसि भए पुर बाहेर ठाढ़े॥
<br>फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पवन निसाना॥निसाना॥१॥
<br>रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
<br>चवँर चारु किंकिन धुनि करही। भानु जान सोभा अपहरहीं॥अपहरहीं॥२॥
<br>सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
<br>सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥मोहे॥॥३॥
<br>जे जल चलहिं थलहि की नाई। टाप न बूड़ बेग अधिकाई॥
<br>अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥बोलाई॥४॥
<br>दो०-चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
<br>होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥२९९॥
<br>–*–*–
<br>कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
<br>चले मत्तगज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥राजी॥१॥
<br>बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
<br>तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छंदा॥छंदा॥२॥
<br>मागध सूत बंदि गुनगायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक॥
<br>बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥भाँती॥॥३॥
<br>कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
<br>चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥बनाई॥४॥
<br>दो०-सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
<br>कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनू दोउ बीर॥३००॥
Anonymous user