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भीतर और भीतर / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

मुझे जब कोई
नहीं देख रहा होता है
यहाँ तक कि आईना भी

तब रेंगता हुआ
कोए मेरी रगों में दौड़ने लगता है
और विचार-मणियाँ दहकती हैं
अंगार-सी
लेकिन ठीक ऐसे में
एक सर्प कुण्डली मार कर
बैठ जाता है मेरे शब्दों पर

जाने क्यों लगता है
कि मुझ में कोई वह
कविता होने से रोक रहा है बराबर
जब जब मैं
कविता होना चाहता हूँ
मेरी आँख सर्प की कुण्डली तक ही जाती है
और लौट लौट आती है

अभी तो वह कुण्डली ही
कविता है मेरे लिए!
<poem>
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