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|रचनाकार=गोबिन्द प्रसाद
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<poem>

आँखों में
उतर रहा है
सलेटी गाढ़ा-सा
आसमान
चीड़ का जंगल
सनसनाता हुआ
गुज़र गया है
अलगू की बस्ती से
बूढ़े की आँखों में
तमाखू की
लपटों का सुलगाव
काँपकर रह गया है
मेहनतकश चेहरों पर
धूप की थिगलियाँ
कब तक लगाओगे,
मक़बूल फ़िदा हुसैन!
सिमट रहा है समुद्र
धीरे धीरे
बच्चों की नन्हीं हथेलियों के बीच

मुझे मालूम है
तुम फिर
रंगों की चट्टानी भाषा से
लड़ते हुए
गूंगे हो जाओगे
मक़बूल फ़िदा हुसैन
और ... मेरे शब्द
बच्चे की तरह
अपनी माँ से
लिपट कर सो जाएंगे

आसमान... कुछ नहीं बोलेगा
बस्ती को काठ मार जाएगा
बच्चों की नन्हीं हथेलियाँ
और बूढ़े की आँखों में
काँपती लपटों का सुलगाव
बेहतर यही है
इन्हें हवाओं में,पागल हवाओं में
तिर जाने दो, मक़बूल फ़िदा हुसैन
<poem>
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