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{{KKRachna
|रचनाकार=मनोज भावुक
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
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बात पर बात जब मन परल होई
लोर आँखिन से कतना झरल होई
दोष आँखे प काहे मढ़ाइल हऽ
कुछ कसर उम्र के भी रहल होई
लोग लूटे में लागल अनेरे बा
जब ऊ जाई त मुट्ठी खुलल होई
प्रान जाई मगर ना वचन जाई
कवनो जुग के चलन ई रहल होई
रात में के बा सिसकत सुनहटा में
जाल में कवनो मछरी फँसल होई
माथ पर साया बन के जे बदरी बा
घाम में खुद ऊ केतना जरल होई
आज कीचड़ में भलहीं सड़त बाटे
काल्ह उहे नू खिल के कमल होई
जब बसा लेलीं 'भावुक' के हियरा में
साथ उनके जिअल भा मुअल होई
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