भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नील / नवारुण भट्टाचार्य

5 bytes removed, 05:33, 17 नवम्बर 2010
कलेजे में खिलते हैं प्रतिहिंसा के फूल
रक्त और स्मृति के बीच
मैं ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेलमैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील।  
छुई जा सकती है बारूद की तरह मेरे देश की रात
प्रचण्ड लहरों ने सीने में जकड़ा था वह शव
बर्छी की नोक जैसी तीखी हवा में
तुम्हें फिर से छू लूँगा, नील। नील ।
नील , मैं छुए हूँ मस्तकविहीन स्वदेश का कबंध
छुए हूँ धान, मृत्यु, जन्म,क्रोध,खेत
नील,तेरे स्पर्श से हुआ हूँ मैं नीला रक्तमुख।रक्तमुख ।
सियार के दाँतों-नाख़ूनों ने चींथ दिया था उसे
कलेजे में खिलते हैं प्रतिहिंसा के फूल
रक्त और स्मृति के बीच ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेल
मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील।नील ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits