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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
पूर्णिमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकावली खो गई है,
चाँदनी में वह सफ़ेदी है कि जैसे
धूप ठंडी हो गई है;
::::नेत्र-निद्रा में मिलन की वीथियों में
::::चाहिए कुछ-कुछ अँधेरा;
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कुछ
और मँडलाते हुए कुछ,
पंख फड़काते हुए कुछ, चहचहाते,
बोल दुहराते हुए कुछ,
::::'चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में,
::::गीत किसका है? सुनाओ!
मौन इस मधुयामिनी में हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
इस तरह की रात अंबर कि अजिर में
रोज़ तो आती नहीं है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह की
रोज़ तो छाती नहीं है,
::::हम कभी होंगे अलग औ' साथ होर
::::भी कभी, होगी तबीयत,
यह विरल अवसर विसुधि में खो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
ये बिचारे तो समझते हैं कि जैसे
यह सवेरा हो गया है,
प्रकृति के नियमावली में क्या अचानक
हेर-फेरा हो गया है;
::::और जो हम सब समझते हैं कहाँ इस
::::ज्योति का जादू समझते,
मुक्त जिसके बंधनों से हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
पूर्णिमा का चाँद अंबर पर चढ़ा है,
तारकावली खो गई है,
चाँदनी में वह सफ़ेदी है कि जैसे
धूप ठंडी हो गई है;
::::नेत्र-निद्रा में मिलन की वीथियों में
::::चाहिए कुछ-कुछ अँधेरा;
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
नीड़ अपने छोड़ बैठे डाल पर कुछ
और मँडलाते हुए कुछ,
पंख फड़काते हुए कुछ, चहचहाते,
बोल दुहराते हुए कुछ,
::::'चाँदनी फैली गगन में, चाह मन में,
::::गीत किसका है? सुनाओ!
मौन इस मधुयामिनी में हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
इस तरह की रात अंबर कि अजिर में
रोज़ तो आती नहीं है,
चाँद के ऊपर जवानी इस तरह की
रोज़ तो छाती नहीं है,
::::हम कभी होंगे अलग औ' साथ होर
::::भी कभी, होगी तबीयत,
यह विरल अवसर विसुधि में खो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।
ये बिचारे तो समझते हैं कि जैसे
यह सवेरा हो गया है,
प्रकृति के नियमावली में क्या अचानक
हेर-फेरा हो गया है;
::::और जो हम सब समझते हैं कहाँ इस
::::ज्योति का जादू समझते,
मुक्त जिसके बंधनों से हो नहीं सकते पखेरु और हम भी।
इस रुपहरी चाँदनी में सो नहीं सकते पखेरू और हम भी।