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विश्वामित्रक दीक्षा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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निश निस्तब्ध चन्द्रिका धबलित तपोवनक शुचि देश
मुनि वसिष्ठ लग आबि ठाढ़ि छथि अरुन्धती सावेश
नहि छनि आश्रममे शाकक पाकक हित लवण प्रकार
कहलनि मुनि ‘छथि लगहि राजऋषि विश्वामित्र उदार
तनिकहि घरसँ लय आनिय जत प्रयोजनक अनुकूल
गाधिराज छथि गुण-अगाध याचना योग्य समतूल।’
गुनि धुनि पुनि बजली- ‘कहइत छी वचन कोना ई नाथ!
मारि शतावधि पुत्र निठुर जे हमरा कयल अनाथ!!
तनिकहिसँ याचना करय-कहइत नहि हो संकोच
अपनहुँकेँ ब्रह्मर्षि शब्द कहबामे जनि प्रति रोच।’
‘प्रिये! सत्य थिक कथा, किन्तु अहँ बुझि राखिअ ई भेद
विश्वामित्र महान पुरुष छथि अति प्रिय हमर अभेद
बीर धीर तेजस्वी अनुपम दृढ़-संकल्पी शूर
नित्य करी कामना, होथु ओ ब्रह्म - तेजसँ पूर
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वनक सुदूर भागमे सज्जित राज-कुटी परिवेश
तरुण तपस्वी गाधिराज जत तपथि उग्र मुनि-वेष
किन्तु आइ राजर्षिक मन उचटल तपसँ अनिमित्त
रोष बढ़ल छल बह्मर्षिक प्रति, प्रतिहिंसामय चित्त
सोचथि हमर मान मर्दनमे बूढ़ वसिष्ठ वरिष्ठ
आइ अन्त कय देब खंग लय दु्रत-पद चलल बलिष्ठ
कुटी समीप जाय किछु गुन-गुन सुनल, अकानल वाद
जतय वसिष्ठ-अरुन्धतीक बिच चलइछ उक्त विवाद
गमल महर्षिक हृदय राग-द्वेषक न जतय छल लेश
हुनक विरोधहुमे प्रेमक अनुरोधहीक आवेश
फेकि खंग ब्रह्मर्षि-चरणपर खसला विश्वामित्र
लगा हृदय सुनि कहल- ‘उठ अहँ हे! ब्रह्मर्षि पवित्र!’
‘प्रभु! लज्जित नहि, करिअ कतय ब्रह्मर्षि कतय हम तुच्छ!’
कहल वसिष्ठ-‘न मृषा कही-अहँ छी ब्राह्मण परतच्छ!
अहंकार केँ छोड़ि देल जखनहि अहँ धीर महान
अधिकारी अहँ ब्रह्मक ज्ञानक ब्राह्मण भेलहुँ निदान।’
अति विनीत कौशिक कहलनि-मुनि! दी दीक्षा ब्रह्मत्व।’
कहल वसिष्ठ ‘अनन्त देवसँ जाय सिखू सब तत्त्व!’
शेष नाग लग गेला, जनिक मस्तकपर धरणी भार
सुनि कहलनि हम ज्ञान देब यदि ली सम्हारि भूभार
तप गौरव मन जागि उठल मुनिवर कयलनि स्वीकार
किन्तु भार पड़ितहि मस्तकपर विकल, न सकल सम्हारि
विश्वामित्र चिकरि उठला-जत कयल तपस्या भोग
सभक फलेँ सुस्थिर धरणी हो हमर शीश संयोग
खसल न अवनी किन्तु न सुस्थिर रहल तपक बल हंत
विश्वामित्र दुखी, पुनि बजला सहृदय शेष अनन्त
‘नहि तप तते अहाँक जतेसँ धरणी हो थिति योग
किन्तु भेटल जीवनमे कहियो की सत्संग सुयोग?’’
कहलनि मन आश्वस्त कने मुनि विश्वामित्र सहर्ष
छन भरि सन्त वसिष्ठक लग पौलहुँ एखनहि उत्कर्ष
‘करिअ तकर उत्सर्ग’ ‘अस्तु उत्सर्गल लव सत्संग।’
आश्चर्यित देखल! धरणी भेल थिर तत् छल निज अंग!
पुनि अनुनय कयलनि ऋषि, ‘आबहुँ देल जाय संस्कार।’
कहल शेष-‘मूढ़ता छोड़ि पुनि जाउ वसिष्ठक द्वार।’
अपमानित नतमुख पुनि विश्वामित्र वसिष्ठ समीप
जाय कहल, ‘की हेतु करी दुर्गति घुमाय नव द्वीप,’
अति गम्भीर धीर मुनि कहलनि, वचन सिनेह भिजाय
”तात! तखन करितहुँ यदि दीक्षित शास्त्रक वचन सुनाय
बिनु श्रद्धा - विश्वास भूमिकेँ नहि थिर होइत उदेस
शिक्षा जकर प्रयोग रूपसँ देलनि सहजहिँ शेष।।“