विषाद ने चेहरों को चूमा था
अकालग्रस्त खेतों की दरारों की तरह
काँप उठे थे होंठ
रात-भर वे लोग प्लेटफार्म पर
गाते रहे थे प्रार्थना
जो गंगा नहाने गए थे
‘पाप कटे-दिन फिरे’
इसी तरह की कामना में
तिल-तिल कर
जलाते रहे जीवन
वे मेरे लोग थे--
जिन्होंने धरती को उर्वर बनाया
जिन्होंने बीज का आविष्कार किया
जिन्होंने फ़सल उपजाई
जिन्होंने बादल की पूजा की
लोकतन्त्र के ग़ुलाम-
हर पाँच साल बाद अँगूठा काटकर
मतपेटियों में डालते रहे
अपने सपनों से
अपने सहज-सरल जीवन से
कटते रहे-सहते रहे ।