विष्णुपद / शब्द प्रकाश / धरनीदास
188.
अहुँ सँभरु मन बावरे। कहाँ रहो केहि लागि आव रे।
अब अपनो घर ठहराव रे। वेद साधु सिख सिखराव रे।
परम अढाइ विसराय घाव रे। वहुरि कहाँ तोहिँ यहै दाव रे।
बिन दस करिले भक्ति भावरे। धरनी रइनि दिना सुझाव रे॥1॥
189.
एक परम पुरुष मन लाव।
गरम भवन प्रण भुगताव। तेहि कबहिँ जानि विसराव॥
नैहर दिवस दस रहु चाव। सो कस ससुरे सुयश आव॥
गरब तजहु गहु गुरुयाव। हरि गुन हरषि हरषी गाव॥
अवरिके जो नहि सुरुझाव। धरनी बहुत पुनि पछिताव॥2॥
190.
जनि हमर खियाले परै कोय।
भाइ बंधु हित न हमार होय। औ जनि खसम कहै जोय॥
लोक शरम कुल करम धोय। बहुत कियो नर रकत बोय॥
देखल मेँ जग व्यवहार रोय। जस धोबी भरै अघट धोय॥
भावे हँसे कोइ भावै रोय। धरनी परम रसमेँ धँस लोय॥3॥
191.
जेहि लागु दरख सोइ जानि है।
अति-रूप आगर नागर वीर। निरखत निफरि गइल तनुतीर॥
तबहिते मोर मन धरहि न धीर। धरि धरि घुमि घुमि चहत शरीर॥
ई मद मातल देखो संसार। उ मद मातल मनुवा हमार॥
धरनि के धन वित चितहि न भाव। राम रटत जिय रहउ कि जाव॥4॥
192.
मुख कहल न जाय दुख दुखिया।
गइल अन्हर-पख, भइल अँजोर। मै गेला भंजन मगन मन मोर॥
निशि दिन रटत रोवत चलि जाय। गृह आँगन वन कछु न सोहाय॥
ई दुख जनि है विरला कोय। ऐसन दुखरा परल जैहि होय॥
सुखहित नर कर कोटि उपाय। धरनि के दुख हित, सुख न सोहाय॥5॥
193.
मारि गओ वैरागिओ, वैरागिओ।
अपने भवन सुख सोवती, चौकि अचानक जागिओ, रे जागिओ।
ता खान तन मन परवश परिगो, रूप ठगौरी ठागिओ, रे ठागिओ॥
अब कैसे करि मेटत मेटाय, देह दुवरिका दागियो, रे दागिओ॥
धरनी सहज सरस सुख उपजो, अरध उरध से लागियो, रे लागियो॥6॥
194.
वारिवो मनमोहन मार हमार।
महल मँझार एक मनियारा, रहत सदा उँजियारा, वरषै अमृत धारा।
कोकहि मारा रूप अपारा, सुर नर मुनि गन हारा।
अलख अखारा, तन मन वारा, धरनी दास बेचारा॥7॥
195.
मैं साधु संगति आयो शंसय बिसारी। न आदरे न हरषै अमर बनाई गारी॥
चाकरि चहाँ न अवर गौन वहदारी। भिच्छा न वनिज भानो कौडी न कियारी॥
तिरथ न तपो न जपो जयभारी। पुजो न पषान करो नेम न अचारी॥
यंत्र मंत्र न औषध न वारी। जिवन न हरष अमर नहि भारी।
धरनि धिरज करि हरिव्रत धारी। परिहरि करम भरम संसारी॥8॥
196.
मैं रामको अमल भैलाँ अमली, रे भाई।
अमलि पियावै ताहि दोहाई॥
डग मग चिकनि चलत बिछलाई। संतन-चरन पकरि सच पाई॥
नहि मोर मातु पितु भाइ भौजाइ। नहि मोर धाइ लागि दुधवा पियाई॥
नहि मोर जोइ जँवाई पथिक पंथाई। देखो दुनियाई सोधो, झूठि है सगाई॥
जे बूझे से जूझे अनुबुझल पराई। धरनि चढ़े रन वजन बजाई॥9॥
197.
काय कोटि चढ़ि देखना, सुषमन सिढी सुधार।
लागत परम सोहावना, बाजै अनहद नाद।
महल मँझारे पैठिवो, अरध उरध के बीज
श्रवन सुनो सो देखियो, वस्तु परी पहिचान॥
रैन गई पह फाटिया, चोर चले पछिताय।
मीन को मारग जानिया, अरु पंछी को खोज।
धरनी कोइ जानै नहीं, जान जो महरम होय॥10॥
198.
चेतहु मन चित लाय, वहुरि ना तो पछितैहो।
कृष्ण वचन मुख कहो, सार गीता पढ़ि देखो।
है चौदह अध्याय, ताहि ऊपरी है विशेषो॥
दोहा
मूल उपर तर डाढह, अति अविचल अविनेश।
ताकी अस्तुति करि थके, ब्रह्मादिक सुर शेष॥
सोइ कहो चहुँवेद भेद विरलै जन पाओ।
जाके पूरन प्रेम ताहि गुरु भेद लखाओ॥
दोहा
भजन बिना पहुँचे नहीँ, सबते ऊँचे धाम।
कर्म फंद छूटै नहीं कोइ सबते कोटि खर्च करु दाम॥
सोइ गायत्री कहै मंत्र मुक्तावलि सोई।
सोइ कह पदमपुरान, अनन्दहु कैसे होई॥
दोहा
लहर पुरान कुरान मेँ, नव व्याकरन विचारि।
पढि पढि पढि पंडित भये, कोइ न सके निरुवारि॥
धु्रव नारद वलि व्यास विदुर प्रह्लादै ठानी।
सुखदेव रामानन्द नामदेव गोरखवानी॥
दोहा
सोइ कबीर कालू गहो, सोइ रविदास अधार।
सोइ चतुर्भुज नानक सेना, घना सकल भयै पार॥
चारिहु युग है सोइ सकल उर-अन्तर वासी।
धरनी मन वच कर्मन, धरु ताको विश्वासी॥
199.
दोहा
दीन दयाल दयाकरी, मोर गवो मन मान।
गुन ते दूर न नावरी, जगमगात बदबान॥
सेवा धरु मन साधु की, परिहरि मन अभिमान।
साधु-शब्द सुनि श्रवन, सुआ शुकदेव कहाये।
साधु वचन सुनि हृदय, प्रगटि प्रह्लाद बचाये॥
दोहा
केवल साधु समाजते, अचल भये धु्रव राज।
साधु कृपा राखो सखा, दु्रपद-सुता को लाज॥
साधु दियो उपदेश आतमा जयदेव जागी।
साधु बताओ भेद, भर्तरी भौ वैरागी॥
दोहा
साधु-प्रताप विराजिया, गोरख उपजो ज्ञान।
पार्थ-समर सत सँगहीं, अमर भयो हनुमान॥
साधु को पारस पाय नामदेव गोविंद गाओ।
लागे साधु संदह सिधाए, पद चित लाओ॥
दोहा
साधु चरन चित लाइया, नानक पूजी आस।
सेना साधु-गोहन धरयो, मोहन भयो खवास॥
डव्रभागी नर सोइ साधु-महिमा जिन जानी।
साधु की संगति पाय, तरे भवसागर प्रानी॥
दोहा
साधु-दया जापर भई, ताको जीवन सार।
धरनि ध्यान अरु ताहि को, निशिदिन बारंबार॥