विसर्जन / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र
नदी में अभी-अभी विसर्जित करके आई हूँ ।
नहीं ! पाप नहीं
भय नहीं
नीरवता नहीं
बहाकर आई हूँ एक टुकड़ा सपना
नीले रंग का ।
कुछ दिनों तक खोई रही
उसे आकार देने में
कुछ दिनों तक आसन में बिठाकर उसे
सुख-दुख बतियाती रही
कल विसर्जित कर आई उसे नदी में ।
यही तो नियम है,
कहा किसी-किसी ने बातों-बातों में ।
आज सुबह नदी नहाने गए
कुछ शरारती बच्चों को मिलीं
उसकी दो अँगुलियाँ, एक पैर
पानी भरने गई वह औरत
गगरी में भर लाई
उसका कपाल और आँखें
कपड़े धोते समय धोबिन के
कपड़े में लिपटकर आ गया
उसका पेट और कंकाल
नित्यकर्म करने गया एक बूढ़ा
उठा लाया उसका दूसरा पैर
अभी नदी किनारे जो मैं आई
किनारे पड़ी थी
उसकी छाती के अन्दर की ख़ामोशी
धूप में सूखकर कड़कड़ ।
इस वक़्त मेरे अन्दर कोई रो रहा है
सिसकियाँ उठ रही हैं
सुनाई दे रहा है कुछ झनझन
टूटने की आवाज़
मैं भी चटक जाती हूँ ।
कल उसे आसन से उठाते वक़्त
उससे आँखें नहीं मिलाई मैंने जान-बूझकर
सारे काम चुपचाप करते समय
भीतर ही भीतर करोरती चली जा रही थी मैं
किसी अपराध बोध से ।
घड़ी-घण्ट, बाजा, पटाख़ा, माइक, लाइट से
प्रोसेशन पराकाष्ठा पर होते समय
मैं टुकड़े-टुकड़े हो बिछती जा रही थी
राह-घाट में ।
अन्त में अगल-बगल झाँककर
उसे विसर्जित कर दिया नदी में
जानती हूँ
सारे अपराधों को माफ़ करने-सा
यह अपराध भी माफ़ कर देगी वह
आसानी से ।
मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र