वीरता / विजय कुमार विद्रोही
मैं युद्धमंत्र , रणभूमि हूँ , मैं पुण्यफलन संघर्षों की ,
देखो पन्नों को पलट आज साक्षी हूँ कितने वर्षों की ,
जब-जब प्रत्यंचा चढ़ी कहीं तुमने मेरी टंकार सुनी ,
जब शंखनाद का स्वर गूँजा तुमने मेरी हुंकार सुनी ।
रानी नैना जब अधर हुऐ मैं दिखी तप्त तलवारों में ,
वो ह्ल्दीघाटी समरधरा महाराणा की ललकारों में ,
मैंने झेलम की कल कल को चीखों में बसते देखा है ,
जब मैंने बिरहा झेली तब दुश्मन को हँसते देखा है ,
अपने ही घर में अपनों को घायल मरते देख रही ,
भारत की ओजवान-भू को शर्मिंदा करते देख रही |
कितनों ने वरण किया मेरा कितनों ने जनम लिया मुझसे,
कुछ ने मेरा यशगान किया कुछ ने चिरमरम लिया मुझसे,
अगिदल की चीखों के स्वर जब मैं मौनमुग्ध हो सुनती थी,
बस प्रियतम से , पुत्रों से अपने पुण्यमिलन क्षण बुनती थी ।
जब-जब मैंने वैधव्य धरा तब - तब श्रृंगार किया मैंने,
जित बार सुहागन हुई कष्ट हँस-२ स्वीकार किया मैंने ।
चिरविरही सी,निष्प्राण,वृद्ध हो तकती हूँ मैं अपनों को ,
मुझको कोई पहचानो वर लूँ फिर से अपने सपनों को ,
नाम वीरता है मेरा , मैं भारत-भू में जन्मी हूँ ,
मैं वीरों की प्राणप्रिया,मैं ही वीरों की जननी हूँ ।