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वृक्ष / चन्द्रप्रकाश जगप्रिय
Kavita Kosh से
गाछ-विरिछ ई धरती केरोॅ
जंगल तेॅ गाछे के जेरोॅ।
जब तांय गाछ-विरिछ धरती पर
तब तांय जीवन फर-फर-फर-फर।
साँस चले छै तभिये तांय ही
नै तेॅ खाली भांय-भांय ही।
गाछ-विरिछ छै, तेॅ फूलोॅ छै
ठारी सें लगलोॅ झूलो छै।
गाछ-विरिछ ई चिड़ियों के घर
गुटरू गूं सें कहै कबूतर।