वृन्दावन की विधवाएँ / विष्णु खरे
वृन्दावन में सबसे पहली विधवाएँ कौन सी आईं थीं
कहीं कोई उल्लेख नहीं कोई प्रमाण नहीं
लेकिन जाने क्यों ऐसा विश्वास सा होता है
कि वे वही रही होंगी
जिन्होंने बूढ़े अर्जुन की अशक्त सुरक्षा के बावजूद
दस्युओं के साथ जाना स्वीकार नहीं किया
लेकिन अपने आतंक में भागकर वे किसी तरह बच निकली होंगी
उन्हे कृष्ण की मृत्यु में विश्वास न हुआ होगा
सोचा होगा उन्होंने
जो मायावी ब्रज छोड़कर द्वारका आ सकता है
वह वापस मथुरा भी लौट सकता है
खोजती हुई वे पहुँचीं होंगी वृन्दावन
जहाँ वृद्धा राधा ने भी उनसे कहा होगा
मरण छू नहीं सकता उसे
यहीं कहीं है वह गोपीवल्लभ
और बूढ़ी हुई होंगी द्वारका की रानियाँ चेरियाँ गिरस्तिनें नगरवधुएँ
बरसाने की गूजरियों के साथ
किसी न किसी को उनमें से दिखे ही होंगे कृष्ण
यह कौन पूछना चाहती कि कैसे
किन्तु सभी को दिखें होंगे सखा की तरह
मृत्यु के पास पहुँचते पहुँचते
अधिकाँश बन गई होंगी यशोदा और देवकी
और उन्होंने देखा होगा मिट्टी खाया मुँह खोले हुए
कान्हा के तालू के नीचे ब्रह्माण्ड को महारास को और उसमें अपने को
वृन्दावन की पहली विधवाएँ
तब स्वीकार कर चुकी होंगी अपने वैधव्य को
अपनी मृत्यु और कृष्ण के परमधाम गमन को
किन्तु उन्होंने फिर कहा होगा हाँ हमने कल ही देखा था
कृष्ण को कालिन्दी के तट पर काम्यवन में
बाद की अभागिनें यह सब भूलती चली गईं
लेकिन वृन्दावन में उनका आना बन्द न हुआ
परम्पराएँ बन जाती हैं उनका प्रारम्भ विस्मृत हो जाता है
अब भी आती हैं वे पता नहीं क्या अथवा कौन सा सखा खोजने
उनमें से भी शायद किसी को दिखते होंगे कृष्ण
लेकिन या तो वे किसी को बताती नहीं
या पहचानती नहीं द्वापर के उस लीलापुरुष को इस कलियुग में
जिसमें उन्हे सभा में नहीं
सड़क पर आना पड़ता है एकवस्त्रा जहाँ सब दिखाते हैं जाँघ
जाना होता है कीचकों के पास
जो केवल विराटनगर के अँधेरे में ही प्रतीक्षा नहीं करते
जहाँ अब दस्यु देते हैं दो जून की रोटी और रात का आसरा