वेदना / कुलवंत सिंह
अश्रुधार में हिमखंड को
आज पिघल जाने दो।
अंतर्मन में दबी वेदना को
आज तरल हो जाने दो।
सजल नयन कोरों से
अश्रु गाल ढुलकने दो।
करुण क्रंदन से विषाद को
आज द्रवित हो जाने दो।
विकल प्राण, दुख से विह्वल
निरत व्यथा मिट जाने दो।
मथ डालो इस तृष्णा को
पूर्ण गरल बह जाने दो।
सूनी आहों में सुस्मित
अभिलाषा को करवट लेने दो।
निस्तब्ध व्यथित पतझड़ में
ऋतु बसंत छा जाने दो।
नीरव निशा गहन तम में
स्वर्ण किरण खिल जाने दो।
अंधकारमय जीवन पथ पर
ज्योति पुंज बिखर जाने दो।
हृदय मरुस्थल जीवन को
आज हरित हो जाने दो।
पादप बंजर पर उगने को
आज हल चल जाने दो।
कुसुम कुंज खिल चुका बहुत
मधुकर को अब गाने दो।
स्वतः भार झुक चुका बहुत
मकरंद मधु बन जाने दो।
विरह तप्त इस गात पर
मेघ बिंदु बरसाने दो।
उद्वेलित ह्रदय उच्छवासों को
सुधा मधुमय हो जाने दो।
प्रेम सिंधु लेता हिलोरें
लहरों को उन्मुक्त उछलने दो।
मादकता बिखर रही अनंत
प्रणय मिलन हो जाने दो।
यौवन सरिता का रत्नाकर से
निसर्ग मिलन हो जाने दो।
रति और मनसिज सा
पावन परिणय हो जाने दो।
करुणा, विनय, माधुर्य का
निर्जर संगम हो जाने दो।
जीवन सौंदर्य अंबर तक
बन उपवन महकाने दो।