भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

हर क्षण आती याद तुम्हारी
चार दिनों में पाती,
मास या कि पखवाड़े में
आँखें थीं प्यास बुझातीं।

अश्रु हास पल अधरों पर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

साँझ ढले ले स्वप्न तुम्हारे
नींद नयन छा जाती,
सारी रात साथ सोती टुक
भोर हुए उड़ जाती।

कितने मधुर विगत के स्वर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

तुम ही क्या तब सीख सके थे
अपनों को तरसाना,
आस बंधा कर मधुर मिलन की
चुपके से छल जाना।

वे क्षण कितने मूक मुखर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

कोई मुझे सौंप दे ला कर
वे कुछ दिवस सुहाने,
बदले में ले-ले फिर चाहे
सुख के सभी ठिकाने।

कुछ दिन मानो जीवन भर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

हर क्षण आती याद तुम्हारी
चार दिनों में पाती,
मास या कि पखवाड़े में
आँखें थीं प्यास बुझातीं।

अश्रु हास पल अधरों पर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

साँझ ढले ले स्वप्न तुम्हारे
नींद नयन छा जाती,
सारी रात साथ सोती टुक
भोर हुए उड़ जाती।

कितने मधुर विगत के स्वर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

तुम ही क्या तब सीख सके थे
अपनों को तरसाना,
आस बंधा कर मधुर मिलन की
चुपके से छल जाना।

वे क्षण कितने मूक मुखर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥

कोई मुझे सौंप दे ला कर
वे कुछ दिवस सुहाने,
बदले में ले-ले फिर चाहे
सुख के सभी ठिकाने।

कुछ दिन मानो जीवन भर थे।
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे॥