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वे मज़दूर, अब नहीं दिखते / सलिल तोपासी
Kavita Kosh से
बासी रोटी और पुदीने की चटनी को
हज़म करने के लिए
एक प्याली फीकी चाय
इसी से गुज़रता
मज़दूरों का दिनचर्या
तपते सूरज की गर्मी से
या वर्षा की मोटी – मोटी बूँदें
सहन करते
जोते-बोए, हरा-भरा किया इस धरती को
वे मज़दूर, अब नहीं दीखते!!!
जंगल सा बन-बैठा है ज़मीन का टुकड़ा
आखिर किस की शाप लग गई है???
और कुछ नहीं वे मज़दूर, अब नहीं दीखते!!!
मज़दूरों की बेटियों की शादी में
अब हमें बुलाया नहीं जाता
हँस्वा, सान्दोकान की जगह जो
ले ली है मशीनों ने!!!